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वो सुहानी यादें -1

कुछ धुंधला धुंधला सा याद है सब कुछ जो गुजर गया । याद हैं कुछ मीठी मीठी सी बातें और कुछ कड़वे से पल जो भूल जाना ही बेहतर है । यादें तो अच्छी संजोना ही अच्छा लगता है ।

जिए हैं हमने वो लम्हे जो आने वाले भविष्य में लोग शायद ना ही जी पाएँगे , देखें हैं वो माहौल जो उनको नसीब न हो पाएँगे ।

जी हाँ हम अस्सी के दशक में जन्मे और गाँव से जुड़े कस्बो और शहर में रहने वाले वे लोग जिन्होंने हर तरह की जिंदगी को करीब से देखा है । देखी हैं वो खुशिया वो माहौल वो प्यार वो दुलार जो आज के रिश्तों में दिखाई ही नहीं देता ।

वो दिन भी क्या दिन थे साहब पैसा कम था खुशियाँ ज्यादा , गाँव में बिजली तो नहीं थी मगर सुकून बड़ा था , परेशानियां बहुत थीं मगर इंसान आज से ज्यादा सुखी था ।

आज भी याद है वो बचपन जब गर्मी की छुट्टियों का इंतजार सभी बच्चों को होता था , जाना होता था अपने गांव या नानी के घर । और ये इंतजार हमें ही नहीं उनको भी होता था जिनके पास हम जाने वाले होते थे ।

और छुट्टियां खत्म होते होते फिर से आपस में सभी कजिन के वादे अगली छुट्टियों में फिर से यहीं मिलेंगे । फोन तो थे नहीं तब तो पहले ही मिलने की प्लानिंग हो जातीं थीं और घर वाले कहीं भी जाएं मगर हमें वहीं जाने दें जहां हमें मजा आता है जिद मतलब जिद ।

आज हालात कुछ ऐसे हैं कि 1 घण्टे बिजली ना आए तो तुरंत परेशानी होने लगती है इन्वर्टर है मगर बिजली आने का इंतजार है बच्चों को बिना ऐसी नींद नहीं आती और बच्चे गाँव जाना पसंद ही नहीं करते ।

उनका तो चलता है बस कार्टून , कैरम, लूडो वो भी लिमिटेड पेरेंट्स खेलने दें तब ना । सभी पैरेंट्स को बच्चा क्लास में पहले नंबर पर चाहिए ।

एक समय था , कक्षा में पास होना होता था मतलब पास बस  , न तो मोटी मोटी किताब कॉपी थीं न इतना भारी बस्ता , माँ बाप की अभिलाषा जरूर होती थी कि हमारा बच्चा पढ़े मगर ऐसी जिद न होती थी कि मार्क्स कितने आएं ।

पढ़ाई की शुरुआत होती थी पहले एक लकड़ी की पट्टी को काला घोंटा करके उस पर खड़िया से अ आ इ ई लिखने से जिसे ओलम कहा जाता था । काली लकड़ी की घोंटा लगी पट्टी लेकर जाते थे।

गाँव के स्कूल के विद्यार्थी ओर साथ ले जाते थे बैठने को एक बोरी । कुर्सी बस मास्टर साहब के लिए ही हुआ करती थी । उस काली पट्टी पर खड़िया गीली कर धागे से सीधी लाइन बनाना और फिर लिखना ।

अंग्रेजी के A और B यो पता भी नहीं होते थे । पढ़ाई की आवाज तो स्कूल से 100 मीटर दूरी पर सुनाई पड़ जाए , छोटे अ से अनार बड़े आ से आम छोटी इ से इमली और बड़ी ई से ईख , कोई दूर से भी समझ ले कि यहाँ क्लास लग रही है ।

 

 

थोड़ा स्तर बढ़ा तो स्लेट और चौक से पढ़ाई जारी रही , मास्टर जी के हाथ मे डंडा होता था जो सिर्फ दिखाने को नहीं सजा बदस्तूर देता था और किसी को उस सजा पर आपत्ति भी नहीं थी । सर्दियों में मास्टर जी धूप के खुले मैदान में तो गर्मियों में पेड़ की छांव में क्लास लगाया करते थे ।

बात अगर अच्छे स्कूलों की करें तो उनमें कक्षा कमरों में लगती थीं और बैठने को सुतली से बनी टाट की पट्टियाँ स्कूल द्वारा ही मुहैया कराई जाती थीं , क्लास में दीवार पर एक जगह को काला करके बोर्ड बना होता था और मास्टर जी के पास चोक और डस्टर ।  बच्चों को लाने ले जाने के लिए स्कूल रिक्शों का इंतजाम अच्छे स्कूलों में ही होता था ।

अंग्रेजी की पढ़ाई यूपी बोर्ड में कक्षा 6 से शुरू होती थी जबकि कक्षा 5 और कक्षा 8 के बोर्ड के पेपर हुआ करते थे । और ये बोर्ड के पेपर भी बड़े अजीब होते थे एक ही दिन में एक के बाद एक लगातार पेपर बोर्ड ना हुआ हउआ हो गया ।

पढ़ाई के साथ साथ खेल भी हुआ करते थे लंच ब्रेक में पॉपुलर खेल कबड्डी , डऊ (कबड्डी का ही दूसरा रूप) , पैदा मारना आदि मशहूर खेल थे । लड़कियों में खो खो का अपना अलग जी मजा था ।

 

 

कक्षा 8 में बोर्ड की परीक्षा पास किए हुए बच्चों को एक नई बीमारी मिलती थी जो आज भी है तू कौन सी साइड लेगा साइंस साइड या आर्ट साइड जिसे समझ न आने पर ऑक्साइड बोलते थे बच्चे क्योंकि पेरेंट्स उतने पढ़े तो नहीं यह आज की बात अलग है शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है

…… क्रमशः

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