केदारनाथ धाम त्रासदी से – हमने क्या सीखा?
केदारनाथ धाम – बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च ‘केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग’ हिमालय की गोद में तीन तरफ से केदारनाथ पर्वत (22,000 फीट), ख़र्चकुण्ड पर्वत (21,600 फीट) और भरतकुंड पर्वत(22,700 फीट) से घिरा हुआ तथा पांच पवित्र नदियों मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरसागर, सरस्वती और स्वर्णगौरी के संगम स्थल है।
जिनमे से अब सिर्फ मंदाकिनी नदी का ही अस्तित्व बाकी है। यह स्थान उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से करीब 3584 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में आता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हिमालय के केदारश्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ऋषि तपस्या किया करते थे, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उन की प्रार्थनानुसार इस स्थान पर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए स्थापित हो कर वास करने का वरदान दिया।
मान्यतानुसार यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवो द्वारा बनवाया गया था जो समय के साथ विलुप्त हो गया। कालांतर में 8वीं सदी में विश्व विख्यात महान संत आदिशंकराचार्य ने इस मंदिर का निर्माण करवाया और यह भी मत है कि आदिशंकराचार्य इसी स्थान पर ब्रह्म में लीन हुए थे। उनके द्वारा बनवाया हुआ मंदिर करीब 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।
उसके बाद 12वीं सदी में राहुल सांकृत्यायन के अनुसार मौजूदा स्वरूप के मंदिर का निर्माण हुआ। मान्यता यह भी है कि करीब 1000 साल पहले भी यहां तीर्थयात्रा होती थी और शैव मत के अनुयायी आदिशंकराचार्य से भी पहले से यहां तीर्थ पर जाते रहे हैं।
आज के दौर में केदारनाथ धाम हिन्दू आस्था के चार प्रमुख स्थलों में से एक है।
16 – 17 जून 2013 को केदारनाथ धाम ने मानव इतिहास की पहली ज्ञात जल प्रलय को झेला मानो प्रकृति का भयानक रुष्ट रूप साक्षात शिव तांडव के समान हो जो समूल नष्ट कर देने पर उतारू हो।
यह प्रलय अपने साथ हजारो मानव, जीव जंतु, घर , जंगल सभी जो कुछ भी उसके रास्ते मे आया सभी को लीलती हुई आगे बढ़ती चली गयी। प्रलय के बाद एक बड़ी आबादी विस्थापित हुई और त्रासदी के सात साल भी अपने जीवन को पुनः स्थापित करने की कोशिश में लगी हुई है।
केदारनाथ धाम के लिए बारिश, नदियों का उफान मारना, बादल फटना, पहाड़ खिसकना ये सब कुछ नया नहीं था लेकिन इस बार प्रकृति कुछ और ही इशारा कर रही थी।
त्रासदी का विश्लेषण धार्मिक और वैज्ञानिक दोनो के आधार पर किया गया जिसमें पाया गया कि यदि दोनों ही दृष्टिकोण से मानव ने अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभाई होती तो शायद त्रासदी का परिणाम इतना भयानक ना होता।
त्रासदी के धार्मिक आधार विश्लेषण के प्रमुख पहलू निम्न थे:-
1. धारिमाता की नाराजगी – धारिमाता कालीमाता का ही एक स्वरूप हैं, उत्तराखण्ड के 26 शक्तिपीठ में से एक धारिमाता के प्राकट्य स्थान पर बने मंदिर को बांध बनाने के लिए 16 जून को शाम 6 बजे करीब विस्थापित किया गया, जिसके करीब 2 घंटे बाद ही प्रलय आ गयी।
2. चार धाम यात्रा का अशुभ मुहूर्त में शुरू करना –उस वर्ष पितृ पूजन मुहूर्त में यात्रा शुरू की गई जिसमें मान्यता के अनुसार सभी शुभ कार्य निषिद्ध होते हैं।
3. तीर्थ का अपमान – माना जाता है कि धामों की यात्रा आस्था और श्रद्धाभाव के साथ कि जाती है लेकिन यहां तीर्थ को पिकनिक स्थल और मनोरंजन के साधन के तौर पर लोग तीर्थ भृमण करने लगे थे। भक्तिभाव की जगह दिखावे और रसूखदार के मनोरंजन का साधन बनाये जाने पर तीर्थो का अपमान होने पर प्रकृति रुष्ट हो गयी।
4. मैली होती गंगा – मंदाकिनी गंगा नदी का ही एक हिस्सा है। माना जाता है कि मानव द्वारा गंगा में बेतहाशा बढ़ाये गए प्रदूषण से रुष्ट होकर मंदाकिनी ने रौद्र रूप धारण कर लिया था।
त्रासदी के बाद धार्मिक दृष्टिकोण इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि इस महाप्रलय में रास्ते मे आने वाली हर चीज अपना वजूद खो बैठी सिवाय मुख्य मंदिर के। जल प्रलय के दौरान एक बहुत बड़ी शिला बहती हुई मंदिर से ठीक पहले आकर रुक गयी जिसने की मंदिर की जलप्रलय से रक्षा की, उक्त शिला को “भीम शिला” के नाम से जाना गया और पूजा जाने लगा।
त्रासदी के वैज्ञानिक पहलू – वैज्ञानिको के अनुसार बेतहाशा बारिश और चौराबाड़ी ग्लेशियर पिघलना त्रासदी का मुख्य कारण बन।
पर्यावरणविदो का मत – पर्यावरणविदों के अनुसार प्रकृति के प्रति मानवीय उदासीनता, पहाड़ो पर अत्यधिक निर्माण कार्य, बढ़ता हुआ प्रदूषण, बड़े पैमाने पर पेड़ो की कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग, बेतरतीब खनन, के कारण पहाड़ और पर्यावरणीय परिस्थितिकी तंत्र को बेहद नुकसान पहुचा जिससे क्षेत्र का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ गया और परिणामतः प्रलय आ गयी।
त्रासदी से सबक और सुधारात्मक उपाय – हमारा देश धार्मिक और वैज्ञानिक दोनो ही दृष्टियों से समृद्ध है लेकिन हम प्रकृति संरक्षण के मामले में दोनों ही पहलुओं को नजरअंदाज कर देते हैं ।
एक ओर जहां आधुनिकता की होड़ में हम संस्कृति और धार्मिर्क मान्यताओं से खिलवाड़ करने से नही चूकते और प्रकृति संरक्षण के साधरण नियम भी नही अपनाते जिससे प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। पहाड़ी इलाको में प्राकृतिक संरक्षण के नजरिये से उनके रख रखाव काफी हद तक धार्मिक और वैज्ञानिक दोनो ही दृष्टिकोण से समान ही मालूम होते हैं।
एक ओर जहां धार्मिक दृष्टिकोण से प्रकृति से खिलवाड़, बढ़ता हुआ प्रदूषण, बेतरतीब खनन आदि को प्रलय का कारण माना गया वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने भी सी तथ्य की पुष्टि की।
आज हम अपनी तरक्की के कितने ही दावे क्यों न कर लें लेकिन अंत मे यही पृथ्वी ही हमारा पहला और अंतिम आश्रय स्थल है। अब चाहें हम धार्मिक मान्यताओं का सहारा लें या वैज्ञानिक अनुसंधानों का लेकिन प्रकृति संरक्षण ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
यह त्रासदी आने वाली महाप्रलय का नमूना मात्र है जो हमे बताती है कि मानव अब अपनी हदों से बाहर जा कर प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा है और अगर हमने अपनी भूल नही सुधारी तो प्रकृति के पास अपने रास्ते हैं हमें अपनी भूल याद दिलाने और सुधार करवाने के।
वैसे तो पहले ही देर हो चुकी है लेकिन फिर भी हम प्रकृति के बनाये नियम मानकर, प्रकृति को और नुकसान पहुचाये बिना पूर्व में जी गयी भूल का सुधार बड़े पैमाने पर करते हैं तो शायद प्रकृति हमे आपदाओं से जूझने में कुछ रिरायत दे दे।
हम चाहे कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाये लेकिन प्रक़ति के लिए हम उसके बनाए महज एक खिलोने से ज्यादा कुछ नही हैं जिसका वो जो चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे एक ही पल में वजूद खत्म कर सकती है जिसकी बानगी हम आजकल देख भी रहे हैं । इसलिए हमें प्रकृति का सम्मान करना सीखना होगा और अपनी जीवन शैली में परिवर्तन लाने होंगे।